Mirza Ghalib Ghazal
Mirza ghazals |
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उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
देखिए पाते हैं उशशाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बराह्मन ने कहा है कि ये साल अच्छा है।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।
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हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?
रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?
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दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द कि दवा क्या है।
हम हैं मुश्ताक और वो बेज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है।
मैं भी मुँह मे ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दा क्या है।
जब कि तुझ बिन नही कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ए खुदा क्या है।
हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है।
मैंने माना कि कुछ नहीं ग़ालिब
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है ।
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बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
इक खेल है औरन्ग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे
जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मन्ज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मेरे आगे
होता है निहाँ गर्द में सेहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे
मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख के क्या रंग है तेरा मेरे आगे
सच कहते हो ख़ुदबीन-ओ-ख़ुदआरा हूँ न क्योँ हूँ
बैठा है बुत-ए-आईना सीमा मेरे आगे
फिर देखिये अन्दाज़-ए-गुलअफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे
नफ़रत के गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क से गुज़रा
क्योँ कर कहूँ लो नाम ना उसका मेरे आगे
इमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे
आशिक़ हूँ पे माशूक़फ़रेबी है मेर काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मेरे आगे
ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिजराँ की तमन्ना मेरे आगे
है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश! यही हो
आता है अभी देखिये क्या-क्या मेरे आगे
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बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए
जितने ज़ियादा हो गए उतने ही कम हुए
पिन्हाँ था दाम सख़्त क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए
हस्ती हमारी अपनी फ़ना पर दलील है
याँ तक मिटे कि आप हम अपनी क़सम हुए
सख़्ती कशान-ए-इश्क़ की पूछे है क्या ख़बर
वो लोग रफ़्ता रफ़्ता सरापा अलम हुए
तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि दहर में
तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुए
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
हर-चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए
अल्लाह रे तेरी तुंदी-ए-ख़ू जिस के बीम से
अजज़ा-ए-नाला दिल में मिरे रिज़्क़-ए-हम हुए
अहल-ए-हवस की फ़त्ह है तर्क-ए-नबर्द-ए-इश्क़
जो पाँव उठ गए वही उन के अलम हुए
नाले अदम में चंद हमारे सुपुर्द थे
जो वाँ न खिंच सके सो वो याँ आ के दम हुए