Confucius - चायना के महान दार्शनिक - कन्फ्यूशियस

Confucius

Confucius पदयात्रा पर निकले , मार्ग में एक महात्मा पेड़ की छाया में विश्राम कर रहे थे , उन्होंने उन महात्मा से पूछा- " महात्मन् ! आप नगर छोड़ कर यहाँ एकान्त में क्यों पड़े हैं ?"

महात्मा ने उत्तर दिया- " इस राज्य का राजा अत्याचारी , कुटिल और दुष्ट है । प्रजा भी राजा को देख कर वैसी ही बनती जा रही है । ऐसे वातावरण में रहना कठिन हो गया था , इसलिए मैं यहाँ आ गया । यहाँ किसी तरह की चिन्ता नहीं है । "

Confucius ने मुस्कुरा कर कहा- “ थोड़ी सी बुराइयों या बुरे व्यक्तियों के कारण आप नगर छोड़ कर चले आए ? क्या बुराई के आगे हार मान लेनी चाहिए ? यह तो आपका पलायन है । " 

महात्मा ने कहा- " ठीक है , मगर इतने झंझटों की अपेक्षा स्वयं बुराई से हट जाना क्या बेहतर नहीं है ? हम बुराई से हट कर अच्छाई का आनन्द क्यों न लें ? " 

इस पर Confucius ने कहा- " आप भूल रहे हैं , कि झंझटों से भरा जीवन ही आपका आधार है । आपकी जो शान्ति आपके पास है , वह छीनी नहीं जा सकती । फिर , यहाँ रहकर भी आप उसी समाज के आश्रय में पल रहे हैं , जिस समाज को आप बुरा कह रहे हैं । क्या यह कृतघ्नता नहीं होगी कि आप समाज को सुधारने के बजाय मुख मोड़ कर जंगल की ओर भाग आए ? आप भाग कर साबित कर रहे हैं , कि सद्गुण दुर्गुण से दुर्बल हैं । सत्य - असत्य की अपेक्षा निर्बल है । ज्ञान पर अज्ञान ने अधिकार कर लिया है । " 

महात्मा ने उत्तर दिया- " मैं यहाँ सद्गुणों की ही रक्षा कर रहा हूँ , बुराइयों की ओर से आँखें मूंद कर चल रहा हूँ । अब आप ही बताइए , क्या मैं भलाई को बुराई का ग्रास होने से नहीं बचा रहा हूँ ? " Confucius ने कहा- " आप एकान्त में साधना कर अपने को तो बचा लेंगे , लेकिन क्या एक साधक का इतना ही कर्तव्य है ? उसे केवल अपनी मुक्ति की ही बात नहीं सोचनी चाहिए । उसे समाज एवं व्यापक जनमानस की बात भी सोचनी चाहिए । इसी में उसकी साधना की सार्थकता है । " 

यह सुनते ही महात्मा जी नगर की ओर लौट आए ।

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