Mahadevi Verma - महादेवी वर्मा के जीवन से जुड़ी एक कहानी - प्रेरक प्रसंग

Mahadevi Verma

Mahadevi Verma तब बी ० ए ० प्रीवियस में पढ़ती थी । अचानक मन में भिक्षुणी बनने का विचार आया । उन्होंने लंका के बौद्ध बिहार में महास्थविर को पत्र लिखा - " मैं भिक्षुणी बनना चाहती हूँ । दीक्षा के लिए लंका आऊँ या आप भारत आएँगें । वहाँ से उत्तर मिला -

'हम भारत आ रहे हैं, नैनीताल में ठहरेंगे , तुम वहाँ आकर मिल लेना ' । Mahadevi Verma ने अपनी सब सम्पत्ति दान कर दी । वह नैनीताल पहुँची । सिंहासन पर महास्थविर बैठे थे । Mahadevi Verma को देखते ही उन्होंने अपने चेहरे को पंखे से ढक दिया । उन्हें देखने Mahadevi Verma दूसरी ओर बढ़ी , उन्होंने मुँह फेरकर फिर से चेहरा ढक लिया । Mahadevi Verma महास्थविर को देखना चाहती , लेकिन वे हर बार पंखे से अपना चेहरा ढक लिया करते । कई बार यही हुआ । Mahadevi Verma इस रहस्य को नहीं समझ पाई । जब सचिव महोदय Mahadevi Verma जी को वापस पहुँचाने बाहर तक आए तब Mahadevi Verma ने उनसे पूछा , “ महास्थविर मुख पर पंखा क्यों रखते हैं ? सचिव ने उत्तर दिया , वे स्त्री का मुखदर्शन नहीं करते । " 

उत्तर सुनते ही Mahadevi Verma जी ने साफ - साफ कह दिया , " देखिए , इतने दुर्बल व्यक्ति को हम गुरु नहीं बनाएँगे । आत्मा न तो स्त्री है , न पुरुष , केवल मिट्टी के शरीर को इतना महत्व कि यह देखेंगे , वह नहीं देखेंगे । " और Mahadevi Verma नैनीताल से वापस लौट गई । बाद में उनके लिए महास्थविर के कई पत्र आए . जिनमें वे बार - बार लिखते कि ' आप कब दीक्षा लेंगी ? Mahadevi Verma जी ने आखिर उन्हें जवाब लिख ही दिया- ' अब क्या दीक्षा लूँगी ? इतने कमजोर मनोबल वाला हमें क्या देगा ?'

इस तरह Mahadevi Verma जी बौद्ध भिक्षुणी बनते - बनते रह गई । बाद में यही Mahadevi Verma हिन्दी की एक महान कवयित्री बनी ।
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